Nowhere Left to Go: Gazans from Jabaliya Camp March Toward the Unknown Amid Relentless Bombardment | जबालिया कैंप के ग़ज़ावासी अनजान मंज़िल की ओर

Ansariji
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जबालिया कैंप के ग़ज़ावासी अनजान मंज़िल की ओर

"जब ज़मीन जल रही हो और आसमान से मौत बरस रही हो, तो इंसान आखिर जाए तो कहां?"


ग़ज़ा के जबालिया कैंप से निकलते हज़ारों लोग आज एक ही सवाल के जवाब की तलाश में हैं – अब कहां जाएं?


हर दिशा में तबाही, हर कोने में खौफ


ग़ज़ा इस वक्त एक ऐसी जगह बन चुकी है जहां कोई भी इलाका सुरक्षित नहीं बचा। पहले हम सुनते थे कि कुछ इलाके "सेफ ज़ोन" हैं। लेकिन अब हालात ऐसे हो चुके हैं कि खुद सेफ ज़ोन भी बमबारी की ज़द में आ गए हैं।


जबालिया कैंप, जो एक समय शरणार्थियों की उम्मीदों का ठिकाना हुआ करता था, अब खुद ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है। हर तरफ चीखें, मलबा, और डर पसरा हुआ है।


"हमें नहीं पता कहां जा रहे हैं, बस जा रहे हैं..."


ग़ज़ा के लोग अब बगैर मंज़िल के सफर पर हैं। कोई ट्रक में भरकर जा रहा है, कोई पैदल अपने परिवार को लिए भाग रहा है। उनके पास न खाना है, न पानी, और न ही कोई गारंटी कि अगला पल ज़िंदा बचेगा या नहीं।

जबालिया कैंप के ग़ज़ावासी अनजान मंज़िल की ओर



एक बुजुर्ग औरत ने कैमरे की तरफ देखते हुए बस इतना कहा:

"हमें नहीं पता कहां जा रहे हैं बेटा, लेकिन यहां तो मौत तय है। शायद कहीं ऊपरवाला रहम कर दे..."


बच्चों की मासूम आंखों में डर, और मां-बाप की आंखों में लाचारी


जो चीज़ सबसे ज़्यादा तोड़ती है, वो है बच्चों की खामोश निगाहें। जब बम गिरते हैं, तो मां अपने बच्चे को सीने से चिपका लेती है, जैसे कह रही हो – “अगर तू मरेगा, तो मैं भी साथ मरूंगी।”


इन बच्चों का कसूर क्या है? सिर्फ यही कि वो उस ज़मीन पर पैदा हुए जहां सियासत ने इंसानियत को रौंद दिया?


दुनिया क्यों चुप है?

ये सवाल आज हर ग़ज़ावासी की आंखों में तैर रहा है।


"क्या हमारी जान की कोई कीमत नहीं?"
"क्या इंसानियत सिर्फ किताबों में रह गई है?"


सोशल मीडिया पर लोग #GazaUnderAttack, #PrayForGaza जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत ये है कि मदद कहीं नज़र नहीं आ रही।


हमें क्या करना चाहिए?


ये वक्त सिर्फ सहानुभूति का नहीं, जागरूकता और आवाज़ उठाने का है।


सोशल मीडिया पर इस जुल्म को शेयर करें।


अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से अपील करें।


अपनी सरकारों पर दबाव डालें कि वे इस नरसंहार को रोकने में कदम उठाएं।


एक इंसान की पुकार


ये लेख एक चीख़ है, एक आम इंसान की पुकार –

“कृपया हमारी जान बचाइए, हमें इंसान समझिए। हम आतंकवादी नहीं हैं, हम मां-बाप हैं, बच्चे हैं, बुज़ुर्ग हैं। हम बस जीना चाहते हैं…


अंत में एक सवाल आपसे:

अगर आपके बच्चे को बम धमाके में खो दिया जाए, तो आप क्या महसूस करेंगे?


सोचिए। महसूस कीजिए। और आवाज़ उठाइए

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